बहुत ही थोडे लोग सत्य को प्रेम करते हैं, और उन थोडे लोगों मे कोइ विरला ही परम् सत्य तक पहुंच पाता है। परम सत्य की उपलब्धि ही जीवन् साधना का उद्देश्य है। अपनी दृष्टि को पवित्र किये विना सत्य को हम देख नहीं सकते। दृष्टि को धूमिल करते हैं – काम, क्रोध् और अहंकार जिनका मूल है “अविद्या”। उस अविद्याजन्य अहंकार के वशीभूत होकर व्यक्ति अपनी आत्मा का प्रकाश खो देता है।
ऐसा व्यक्ति जिसे योग के बारे में पता नहीं वह योग के ऊपर कोई विचार रखे तो भ्रामक ही होगा। ऐसे व्यक्तियों के लिये ही उपनिषद मे कहा गया है – “अविद्यायां अन्तरे वर्तमानाः स्वयम् धीराः पण्डितमन्यमाना, दंद्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः, अन्धैव नीयमानाः यथान्धाः”, अर्थात “जो व्यक्ति स्वयम् घनीभूत अविद्या मे स्थित हो, और अपने को धीर पण्डित माने वे मूढ होते हैं, और जैसे कोइ अन्धा अन्धे को रास्ता दिखाये वैसे ही वह विद्यांध व्यक्ति दुसरे को भी अन्धकार मे लेकर चक्कर काटते रहते हैं।
जो व्यक्ति बुद्ध, कृष्ण, रामकृष्ण परमहंस और ओशो जैसे व्यक्ति को “अयोगी” कहे उसकी दृष्टि कितनी विकृत है आप अन्दाजा लगा सकते हैं। जो योग को किन्हीं सिमित और अनन्त जीवन् के परिप्रेक्ष्य मे अत्यन्त सिमित घटनाओं मे से एक – “मृत्यु” को ही कसौटी माने उसका योग के प्रति दर्शन कितना क्षुद्र है आप समझ सकते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसे लोगों के लिये ही कहा है – ‘अवजानन्ति मां मूढाः मानुषीं तनुमाश्रितम्’ अर्थात ‘मनुष्य शरीर में स्थित मुझ परमात्मा को मूढ नहीं समझ सकते’।
शास्त्र और सद्गगुरुओं ने ऐसे मूढ व्यक्तियों के लिये अत्यन्त परुष (कठोर) वचन का उपयोग किया है। बुद्ध ऐसे व्यक्ति को ‘मोघपुरुष’ कहते हैं, और उन्होंने कहा है, ऐसे व्यक्तियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित तक नहीं करना चाहिये, सम्मान देने की बात तो दूर। ऐसे व्यक्तियों का तिरस्कार होना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के लिये प्रकृति और समय ही गुरु होते हैं।
योग की कसौटी केवल् मृत्यु ही नही वरन जीवन् है। नास्तिक केवल् मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। नास्तिक मृत्यु को अहम मानते हैं, आस्तिक केवल् जीवन् देखता है, अनन्त जीवन; मृत्यु बस एक पट्ट-आक्षेप, पर्दा का गिरना। मृत्यु और जीवन् रोज, पल प्रति पल घटित होता है, और यह वही देखता है जो द्रष्टा, विपस्सी, अनुपस्सी, प्रेक्षानुगत है।
जीवन् मे “काम, क्रोध्, अहंकार, लोभ, मोह, राग-द्वेष् और अविद्या जैसे नीवरण, आस्रव, क्लेश और तमस की क्षीणता” तथा “अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ध्यान, प्रज्ञा, करुणा और चित्त विमुक्ति की उप्लब्धिता” ही “योग की कसौटी” है, जिससे जीवन् शुद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है।
आदि शंकराचार्य ने मृत्यु को प्रधानता बिल्कुल ही नही दी है, वे कहते हैं जीवन्मुक्त योगी के लिये शरीर बिल्कुल अर्थहीन हो जाता है, और प्रारब्ध के अनुसार चलता है, और तदनुसार उसकी गति होती है। वे कहते हैं जैसे वृक्ष से पत्ता गिरता है वैसे ही जीवन्मुक्त योगी का शरीर कब् कैसे और कहां गिरता है, इससे, जैसे वृक्ष के उपर कोइ प्रभाव नहीं पडता है वैसे ही योगी की आत्मा पर भी इसका कोइ प्रभाव् नही पडता है, उससे वृक्ष और योगी की आत्मा अपवित्र नही होती है। एक योगी के लिये आत्मा ही महत्वपूर्ण होता है न कि नाश्वान् शरीर और अन्तःकरण।
ऐसे अनगिनत श्रेष्ठ योगी हुए, जैसे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कृष्ण, जीसस, संत वलेन्टाइन्, सुकरात, महामौग्ग्लायन, बोधिधर्म, गुरुगोबिंद सिंह, रामकृष्ण परमहंस, स्वामि विवेकानन्द, हेलेन ब्लेव्ट्स्कि, स्वामि रामतीर्थ, महर्षि रमन, स्वामि शिवानन्द, ओशो, इत्यादि जिनकी मृत्यु समयपूर्व और असामान्य हुई, इसका मतलब वे योगी नहीं थे?
सर्वथा असत्य।
योगी जीवन और मृत्यु से अत्यन्त दूर चला गया होता है, और उसका जीवन् और मृत्यु उसका प्रारब्ध तय करता है, जिससे उसकी आत्मा तथाकथित मृत्यु जिसे परिनिर्वाण कहते हैं, से पहले ही मुक्त हो गयी होती है।
एक योगी की पहचान होती है कि वह् शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु, समाहित चित्त, और हर प्रकार के आस्रव से मुक्त होता है। श्रुति कहती है – जैसे सर्प अपने केन्चुली को कहीं भी कैसे भी त्याग कर मुक्त होकर निकल जाता है, वैसे ही जीवन मुक्त योगी इस मरणधर्मा शरीर को छोड कर जीते जी अनन्त ब्रह्म मे लीन हो जाता है, और कालान्तर मे यह शरीर भी च्युत होकर अपने तत्त्वों मे लीन हो जाता है।
सत्यनिष्ठा, आत्मनिष्ठा, और ब्रह्मनिष्ठा ही योग है, सत्यनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, ब्रह्मनिष्ठ योगी ही वरेण्य है, अन्य सर्वथा और सदैव त्याज्य।
स्वप्रचारित और प्रज्ञानान्ध योगियों से सावधान रहें!
विचारें।
अस्तु! ॐ!