आत्मनिष्ठा से अभय आता है और अभय से आत्मानिष्ठा आती है, इसीलिये उपनिषद् कहता है – “अभयम् ब्रह्म” अभय स्थिति ही आत्मा व ब्रह्म है | किसी भी प्रकार का भय तनाव उत्पन्न करता है, और तनाव आत्मा अर्थात शान्ति सुख आनन्द से दूर ले जाता है | भय तनाव पैदा करता है, तनाव मन को अस्वस्थ कर देता है, और अस्वस्थ मन एन्डोक्राइन सिस्टम को क्षतिग्रस्त कर देता है, जिससे हानिकारक हर्मोन्स आधि और व्याधि उत्पन्न कर देते हैं जिससे जीवन साधना अत्यन्त बाधित हो जाती है | हमने ये देखा कि अभय सभी क्लेशों का मूल है |
अभय का भी मूल है, और वह है अविद्या | अविद्या क्या है?
इसका अत्यन्त सरल और सुन्दर विव्ररण भगवान पतञ्जलि ने अपने योगसूत्र मे दिया है – “अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या” ॥२/५॥ अर्थात जो अनित्य, अशुचि (अपवित्र), दु:ख, और अनात्मा हैं उन्हें नित्य, शुचि (पवित्र), सुःख और आत्मा समझना ही अविद्या है |
भगवान् बुद्ध ने “प्रतीत्य समुत्पाद” में अविज्जा अर्थात अविद्या को ही सभी क्लेशों का मूल कहा है | उन्होंने कहा – अविद्या से संस्कार उत्पन्न होते हैं, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम-रूप, नाम-रूप से षड-आयतन (शडेन्द्रिय – चक्षु, नासिका, कर्ण, जिव्हा, त्वचा, और मन), षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जरा, मरण, भय, शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य, उपायास इत्यादि, जो कि दुःख समूह् है |
अविद्या के कारण ही इन अयोग्य तत्वों के प्रति आकर्षण, राग व तथाकथित प्रेम, जो वास्तव में मोह है, उत्पन्न हो जाता है, और उनके विनाश, वियोग की आशङ्का व परिणाम से भय शोक उत्पन्न होता है जो जीवन् को और विकृत कर देता है| और ऐसा व्यक्ति अपनी आत्मा व परमात्मा से दूर चला जाता है, किसी साधु, योगी व बुद्ध पुरुष के संपर्क मे आने से ये अविद्या तिरोहित होने के कारण भय भी जाता रहता है और जीवन प्राकृत अर्थात अपने स्वरूप् में स्थित हो जाता है, जो योग का परिणाम है | जिसे महर्षि सद्गुरु पतञ्जलि “पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं, स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरेति” कहते हैं |